Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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(१३२)
गणहर गोयमं वन्दे, कल्लाणं मगलं प४ ॥ १ ॥
मिथ्या दृष्टि जीव की, श्रद्धा विषम जो होइ । दृष्टि विषम के कारण, देव विषम तस जोइ ॥ १ ॥
एह ग्रन्थ पूर्ण भयो, नामे ज्ञान प्रकास । सत गुरु कृपा क ......" भन्य जीव हित माम ||
उत्तर देश पंजाब में, कपूरथले मभार । ___ उनवीसवें सठ (षट् ) साल में अन्य रच्यो शुभकार ॥ १६ ॥
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काल (प्लट ? ) पंचमे ऋषि विराजे, श्रीमनी मोटा ऋषिराय । तास पटोधर संत मुनीसर, नाथूराम महन्त कहाय ।। ऋषि गयचन्द सत गुग्णा कर शिष्य श्री रतिराम कहाय । तस चरणा बुज मंबन हारो, नन्दलाल मुनि गण गाय ॥ २३ ॥ जिसी भावना माहरी, तैसे ग्रन्थ बणाय ।
श्रोको अधिको जो करो, मिच्छामि दुक्कड़ मथाय ॥ २४ ।। लेखनकाल-रचना समय के समकालीन प्रति-पत्र-२१ । पंक्ति-१२ से १६, अतर ४२ में ५२ ।
विशेष-ग्रन्थ दम काण्डों में विभक्त है। इसमे सम्यकत्व और सम्यक दृष्टि का वर्णन है।
[स्थान- चारित्र सूरि भण्डार] ( २५ ) ज्ञानार्णव ( भाषा चौपई बंध ) रचयिता-लब्धि विमल ।
सं० १७२८ विजय दशमी, फतेपुर में ताराचंद आग्रह पादि
छप्पय छद ललित चिह्न पर कलित मिलत निरखति निज संपत । हरषित मुनि जन होय कलिमल गुण जंपति ॥