Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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अन्त
( १५३ )
सो०- जै जै जैन धर्म हितकारी, संघ चतुर्विध जिहि अधिकारी ॥ १ ॥ arat any after anaक, यहि चतुर्विध संघ प्रभावकारी ॥२॥ नराकार सौधर्म बखाना, जाके तेरह बंग प्रधाना ॥३॥ वदन पंच प्राणद्वै हाथा, बुभि चित चतम द्वै पद साथा ॥४॥
राजत्रय जासौ कहै, शान दरस चरित्र || १ || धर्म भूप नर रूप कौ, कहिये वदत पवित्र || २ ||
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इन पाठ दिन में जनि, जिन जन सनमुख होय ।
कल्प सूत्र को अर्थ सबं, बस्नी वखाने सोय ॥ १५ ॥ कल्पसूत्र को मूल यह, प्राकत बानी माह । लोक संस्कृत तहि यदि क्यों हूँ समझे नहि || तैसी टीका संस्कृत, मई न समभ्झन जोग । to अनेक ता पर करे, टम्बा जिन जिन लोग । एक देस की भाष सो, गुरजर देसी जान | धान देस के जन तिन्हें समझिन सके निदान ! याते यह माषा करौ, जिहि सम देसी लोग । सुख सौ सब समझे, पढ़े, बड़े पुग्य सुख मोग । ऐसी मति उर धानि श्री जिन जन कुल परसंस । गोन गोखरू जैन मस, घोस वंस अवतंस | समाचंद नर राय कै श्रमर चंद वर राय | तिनके सुत कुलचंद नृप, डालचंद सुखदाय ॥
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तिन जिन जन सुख हेत, अरु धर्म उद्योत विचार ॥ करायचन्द हि चतुर, उपकारी मतिधार ॥ कल्प सूत्र करि कल्प तय, भाषा टीका हेत ॥ सो अनुसार जिन यश वचन, सिर घर लेह सहेत ॥
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संवत् ठारह से वरस, सरख और विक्रम नाम बीतें मई, टीका प्रकट बुधीस |
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तीस ।