Book Title: Rajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Rajasthan Vishva Vidyapith
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रज तम टारि प्रयास करि, तन पासो दे छारि । चलो जीत घरफौं अवै, हरि सर्वत्र निहारि ॥ ६७ ॥
चोप उ ( र १) घर द्वेषात की पापो, पूर्व पुन्य प्रकास समाप्त। लेखनकाल-संवत् १८४१ कार्तिक कृष्णा ७ भौ' ( म ) वासरे शुभम् । प्रति-पत्र ६ । पंक्ति ६, १०। अक्षर २५। साइज ७ix ४||
विशेष-ग्रन्थ का नाम सष्ट नहीं है। पत्रों के हामिये पर 'ज्ञान' शब्द लिखा है और ग्रंथ के प्रारंभ में चौपई का उल्लेख है अतः इसका नाम ज्ञान चौपई उचित समझ के लिखा गया है।
[स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ]
(१० ) ज्ञानसार । रचयिता-रामवि । मं० १७३४
आदि -
हंसवाहिनी सारदा, गनपति मति के धाम । बुद्धि करन वकसन उकति, सरन तुम कवि राम ॥ १ ॥ गुर गोवरधन नाथ पुनि, तारन तरन दयाल । उनही के परताप करि, लही बुद्धि यह माल ॥ २ ॥ करम कुल वरनौं सुनो, कुल्लि(बुद्धि) कुली सिरमौर । सूरज के परताप मैं, ज्यों दीपक कुल और ॥ ३ ॥ प्रथीराज सुवपाल के, भीष भीव समि जानि । तिनके श्राहाकरन मया, धरम मूल गुन जानि ॥ ४ ॥ राजसिंघ तिनकै भए,पृथ्वीपाल भुवपाल । परिहरन करनी करनत्र, विप्रन को धनमाल ॥ ५ ॥ गउ विप्र को दास पुनि, रामदास वलि वंड | फतेसिंघ तिनिके भए, लए ऊडंडी डंड ॥ ६ ॥ श्रमरसिंघ तिनिके भए, सुहर धीर सरदार । नउ खंड महि मै प्रगट, पूरौ सार पहार ॥ ७ ॥ जगतसिंघ जगमें प्रगट, जगतसिंग बसि वंड ।