Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri
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श्री
नरविक्रमचरित्रे |
॥ ३२ ॥
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सोरभभरलोभ मिलंतरणज्झणंतफुल्लंघय रिंछोलि लिहिज्ज माणमयरंदं नवसहयारीमंजरीपुंजं ताव सहसच्चिय सुणेमि नियपरियणकलयलं । कहूं ? -
सामी ! पेच्छह गयणंगणंमि कह वट्टए महाजुज्झं १ । सज्झसकरमहभीमं सुराण विजाहराणं वा ।। १ ।
एवं सोचा एवि उत्ताणी कयानिमेसलोयणेण उड्डमवलोयमाणेण दिट्ठा विविधपयारेहिं जुज्झमाणा गयणमि विजाहरा, ते य एवं जुज्झति
सियमल्ल सवलसिल्लमूल अवरोप्यरु मेल्लहिं भिंडिमाल | वंचावहि तक्खणि लद्ध रक्ख पुण पहरह जय जस सङ्घपक्ख ? खणु निहुरमुट्ठिहिं उट्ठियंति, खणु पच्छिमभागमणुवयंति ।
खणु जण गजणणि गालीउ देंति, खणु नियसोंडीरिम कित्तयति ॥ २ ॥
मिलद्रणज्झणत्पुष्पन्धयरिन्छोलिलिह्यमानमकरन्दं नवसह्कारमञ्जरीपुत्रं तावत् सहसैव शृणोमि निजपरिजनकलकलम् । कथम् ? स्वामिन् ! प्रेक्षस्व गगनाङ्गणे कथं वर्तते महायुद्धम् । साध्वसकर मतिभीमं सुराणां विद्याधराणां वा
॥ १ ॥
एवं श्रुत्वा मयाऽपि उत्तानीकृतानिमेषलोचनेन, ऊर्ध्वमवलोकमानेन दृष्टा विविधप्रकारैर्युध्यमाना गगने विद्याधराः, ते चैवं युध्यन्ते -
शितलक सर्वलसिलशूलान् परस्परं मुक्तभिन्दिपालान् । वञ्चयन्ति तत्क्षणं लब्धरक्षाः पुनः प्रहरन्ति जययशः सर्वपक्षाः || १ || क्षणे निष्ठुरमुष्टिभिरुत्तिष्ठन्ति, क्षणे पश्चिमभागमनुव्रजन्ति । क्षणे जनकजननीनां गालीर्ददति क्षणे निजशौण्डीयं कीर्तयन्ति ॥ २॥
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गगने
विद्या
घराणां
महायुद्ध
|प्रेक्षणम् ॥
॥ ३२ ॥

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