Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नरविक्रमचरित्रे । ॥ ३३ ॥
एकविद्या
धरस्य पराजयमा
ABSTRAMGARASICALCACHERECER
अच्छी निमीलियसुय रहिं चिर साहिय विजयविज, उणु खणे खणे जायहिं जुज्झसज्ज ।
अविगणिय मरण रणरसियचित्त, भुयदंडमहाबलमयविलित्त ॥३॥ इय तेसिं खयराण परोप्पर जुज्झिराणमेकेणं । लद्धण छलं अन्नो पहओ गुरुमोग्गरेण सिरे ॥ ४ ॥ पडिओ धरणीवढे ममंतिए विगयचेयणो सो य । मुच्छानिमीलियच्छो विच्छाओ छिन्नरुक्खोच ॥ ५॥
एत्थंतरे तयणुमग्गेण चेव कड्डियनिसियखग्गो पधाविओ इयरो विजाहरो तस्स वहनिमित्तं, मुणिओ य मए जहा एसो एयस्स विणासणकए एतित्ति, तओ मए भणिया सद्दवेहिणो धाणुहिया अंगरक्खा य, जहारे रे रक्खह एवं भूमीतलनिवडिय महाभागं । एवं विणासणुज्जुयमित्तं खयरं पडिक्खलह ।।१॥
अक्षिणी निमील्य स्वपन्ति चिरसाधितविजयविद्याः, पुनः क्षणे क्षणे जायन्ते युद्धसज्जाः ।
अविगणय्य मरणं रणरसिकचित्ताः । भुजदण्डमहाबलमदविलिप्ताः इति तेषां खेचराणां, परस्परं युद्धमानानामेकेन । लब्ध्वा छलमन्यः प्रहतो गुरुमुद्रेण शिरसि ॥१॥ पतितो धरणीपृष्ठे, ममान्तिके विगतचेतनः स च । मूर्छानिमीलिताक्षो, विच्छायश्छिन्नवृक्ष इव ॥५॥
अत्रान्तरे तदनुमार्गेणेव कृष्टनिशितखड्गः प्रधावित इतरो विद्याधरस्तस्य वधनिमित्तं, ज्ञातश्च मया यथैष एतस्य विनाशनकृते एतीति, ततो मया भणिताः शब्दवेधिनो धानुष्का अङ्गरक्षकाच, यथा
रे रे रक्षत एनं भूमितलनिपतितं महाभागम् । एतं विनाशनोवतमानं खचरं प्रतिस्खलत
SECACAECRECORRECE
॥ ३३॥
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150