Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्यागः॥ नरविक्रमचरित्रे । ।। ५१॥ CREACHESCREOCHECRECRACREGN5 ता लहु गच्छह भवणं संतिं कारेह देह भृयवलिं । पारंभह होमविहिं सुमरह मधुंजय मंतं ॥२॥ वियरसु सुवण्णदाणं माहणसमणाण तकुयजणाणं । एवं कहिए सिग्धं मिठेणं चोइया करिणी ॥ ३ ॥ भवर्णमि तओ गंतुं जं जह भणियं तहेव नीसेसं । अइमुद्धबुद्धिभावा करावियं विजयसेणेण ।।४।। अहं पुण निरुच्छाहो निराणंदो ववगयधीरिमभावो अवयरिय तओ ठाणाओ सोमदत्तस्स अकहमाणो चेव पच्छन्नदेसे ठाऊण चिंति उमाढतो, कहं ? अणवस्यकणयवियरणपरितोसियमाणसावि कह पावा । सामंता मत्ता इव पुरट्ठियंपिहु मुणंति न मं? ॥१॥ कह वाऽवराहमणेण (सहणेण) भूरिसोगु (मई) सपयंमि ठवियावि । न गणंति मंतिणो में तणं व पम्मुक्कमजाया? ।।२।। तस्माल्लघु गच्छत भवनं शान्ति कारयत दत्त भूतबलिम् । प्रारभध्वं होमविधि स्मरत मृत्युञ्जय मन्त्रम् ॥२॥ वितरत सुवर्णदानं ब्राह्मणश्रमणानां तकूकजनानाम् । एवं कथिते शीघ्रं मिण्ठेन चोदिता करिणी ॥३॥ भवने ततो गत्वा यद् यथा भणितं तथैव निःशेषम् । अतिमुग्धबुद्धिभावात् कारितं विजयसेनेन ॥४॥ अहं पुनर्निरुत्साहो निरानन्दो व्यपगतधैर्यभावोऽवतीर्य ततः स्थानात् सोमदत्तस्याकथयन्नेव प्रच्छन्नदेशे स्थित्वा चिन्तयितुमारब्धः-कथम् ? अनवरतकनकवितरणपरितोषितमानसा अपि कथं पापा: । सामन्ता मत्ता इव पुरःस्थितमपि हु जानन्ति न माम् ॥१॥ कथं वाऽपराधसहनेन भूरिशो मया स्वपदे स्थापिता अपि । न गणयन्ति मन्त्रिणो मां तृणमिव प्रमुक्तमर्यादाः ॥२॥ RECROSTEGCNESCRCRECOROSAROKAROCIE For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150