Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri
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नरविक्रमचरित्रे ।
असिखेडयहत्थेहिं तस्संग छाइयं वरमडेहिं । ओगासमलभमाणो रुद्धो खयरो तओ भणइ ॥२॥ हे भो नरिंद ! मुंचसु एवं खयराहम मम वहट्ठा । एसो खु मज्झ वइरी विणासियवो मएऽवस्सं ॥३॥ भणिओ य मए खयरो किं पलवसि ते पिसायगहिओछ । किं एस खत्तधम्मो ? जेणेवमहं करेमित्ति ॥ ४॥ किं चावर मिमिणा जेणेयं मारिउं समीहेसि । सो भणइ एस मम दारभोगरसिओत्ति ता हणिमो ॥ ५॥ ताहे मए स भणिओ साहू इयरो व होउ नऽप्पेमि । सरणागयरक्खणलक्खणं च राईण खत्तवयं ॥ ६॥ उबद्धमिउडिभंगो रोसारुणनयणजुयलदुप्पेच्छो । फरुसक्खरेहिं खयरो ताहे में भणिउमाढत्तो ॥ ७॥ रे रे दुहनराहिव ! मा बोहसु केसरि सुहपसुतं । दिट्ठीविसाहितुंडं कंडूयसु मा करग्गेण ॥ ८॥ असिखेटकहस्तैस्तस्याङ्ग छादितं वरभटैः । अवकाशमलभमानो रुद्धः खचरस्ततो भणति
॥२॥ हे भो नरेन्द्र ! मुख एतं खचराधम मम वधार्थम् । एष खु मम बैरी विनाशयितव्यो मयाऽवश्यम् ॥३॥ भणितश्च मया खचरः किं प्रलपसि त्वं पिशाचगृहीत इव । किमेष क्षत्रधर्मों येनैवमहं करोमीति किं चापराद्धमनेन येनैतं मारयितुं समीहसे । स भगति एष मम दारभोगरसिक इति तस्माद् हन्मः ॥५॥ तदा मया स भणितः साधुः, इतरो वा भवतु नार्पयामि । शरणागतरक्षणलक्षणं च राज्ञां क्षत्रव्रतम् ॥६॥ उद्धभृकुटिमको रोपारुणनयनयुगलदुष्प्रेक्षः । परुषाक्षरैः खचरस्तदा मां भणितुमारब्धः रे रे दुष्ट नराधिप! मा बोधय केसरिणं सुखप्रसुप्तम् । दृष्टिविषाहितुण्डं कण्ड्यस्व मा कराण ॥८ ॥
वीरसेन| कृता पराजितविद्याधरस्य वधार्थमागतस्य तर्जना ॥
HOGICASAASACA-CAROO
CACACADORE
॥३४॥
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