Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri

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Page 117
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री नरविक्रमचरित्रे | ॥१०९ ॥ www.kobatirth.org इयहेसियं च जायं जयत्रवो वियंभिओ सहसा । सामंतमंतिलोएण परिवुडो तो गओ नयरं ॥ ४ ॥ जाओ पुरे पमोओ अपणयपुवात्रि पस्थिवा पणया । नरविकमेण रअं अतायत्तं कथं सवं ॥ ५ ॥ नरसिंघनिविसेसा जाया करितुश्यरयणभंडारा । सक्कोव देवलोए विलसइ सो विविह्नकीलाहिं ॥ ६ ॥ केवलमेको चिय फुरह तस्स हियर्यमि नडुसलं व । दइयासुयदीहरविरहवइयरो दुस्सहो अणिसं ॥ ७ ॥ अन्ना जयवद्वणनयरासनुजाणे अणेगसीस परिवुडो सीहोल्व दुद्धरिसो यूरोध निहि (ह) पतमपसरो चंदोव सोमसरीरो मंदरो इव थिरो जचकणगंव परिक्खखमी दूरविवजियराओवि अनंतराओ घरियपयड जमवओषि नीसेससत्तर क्खणबद्धलक्खो समिह वावारियमणपसरोsविसया पसंतचित्तो छत्तीसगुण महामणिरोहण भूमिव धी निहाणं व पच्चक्खधम्मरासिव सुवणभवणेकदीवोव ॥ ४ ॥ 11 144 11 ॥ ६ ॥ हयहेषितं च जातं जयसूर्यरवो विजृम्भितः सहसा । सामन्तमन्त्रिलोकेन परिवृतस्ततो गतो नगरम् जातः पुरे प्रमोदोऽप्रणतपूर्वा अपि पार्थिवाः प्रणताः । नरविक्रमेण राज्यमास्मायत्तं कृतं सर्वम् नरसिंह निर्विशेषा जाताः करितुरगरत्नभाण्डागाराः । शक्र इव देवलोके विलसति स विविधक्रीडाभिः केवलमेकमेव स्फुरति तस्य हृदये नष्टशल्यमिव । दयिता सुतदीर्घविरहव्यतिकरो दुस्सहोऽनिशम् अन्या जयवर्धन नगरासन्नोद्याने अनेक शिष्यपरिवृतः सिंह इव दुर्द्धर्षः, सूर्य इव निहततमः प्रसरश्चन्द्र इव सौम्यशरीरः मन्दर इव स्थिरः, जात्यकनकमिव परीक्षाक्षमः, दूरविवर्जितरागोऽपि अनन्तरागः [ज] धृत प्रगटयमत्रतोऽपि निःशेषसत्वरक्षणबद्धलक्षः समितिव्यापारितमनः प्रसरोऽपि सदा प्रशान्तचित्तः, षट्त्रिंशद्गुण महामणिरोहण भूमिरिव, धीनिधानमिव, प्रत्यक्ष धर्मराशिरिव, ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयवर्धने नरविक्रमो नृपः ॥ ॥ १०९ ॥

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