Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri
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नरविक्रमचरित्रे ।
SEARCHECRECARRICA
जालालिभीममग्गि अवकमसु य मा तुमं पयंगोछ । जइ वंछसि चिरकालं रजं काउं महियलंमि । ९॥
| भूमितलभणिओ य मए एसो किं रे वाहरसि मुकमज्जाय ! । सप्पुरिसमग्गलग्गस्स मज्झ होइ त होउ ॥ १०॥
*निपतित चिरकालजीविएणवि परंतेऽवस्समेव मरियई । ता अवसर दिट्ठिपहाओ कुणसु जे तुज्झ पडिहाइ॥ ११ ॥
विद्याधरस्य जा एवं ता विहिणो मा दाहिसि दूसणं तुम राय ! इय भणिऊण सरोसो खयरो सो गयणमुप्पइओ ॥ १२॥
तयणतरं मए निरूविओ सो भूमितलनिवडिओ विजाहरो जाव अञ्जवि सजीवो ताहे काराविया चंदणरसच्छडापहाणा सिसिरोवयारा संवाहियाई सरीरसंवाहणनिउणेहिं पुरिसेहि सवंगाई, खणंतरेण लद्धा तेण चेयणा उम्मीलियं नयणनलिणं अवलोइयं दिसिमंडलं आलविओ पासवत्ती परियणो-भो भो महायस! कहमहमिह महीबट्टे निवडिओ, कत्थ वा वेरिविजाहरो',
ज्वालालिभीममग्निमवक्राम च मा त्वं पतङ्ग इव । यदि वाञ्छसि चिरकालं राज्यं कर्तुं महीतले ॥९॥ भणितश्च मयैष किं रे व्याहरसि मुक्तमर्यादः । सत्पुरुषमार्गलग्नस्य मम यद्भवति तद्भवतु
॥१०॥ चिरकालजीवितेनापि पर्यन्तेऽवश्यमेव मर्तव्यम् । तस्मादपसर दृष्टिपथात् कुरुष्व यत्तभ्यं प्रतिभाति ॥११॥ यद्ययं तर्हि विधेर्मा दास्यसि दूषणं त्वं राजन् ! । इति भणित्वा सरोष: खचरः स गगनमुत्पतितः ॥१२॥
तदनन्तरं मथा निरूपितः स भूमितल निपतितो विद्याधरो यावदद्यापि सजीवस्तदा कारिताश्चन्दनच्छटाप्रधानाः शिशिरोपचाराः, संवाहितानि शरीरसंवाहन निपुणैः पुरुषैः सर्वाङ्गानि, क्षणान्तरेण लब्धा तेन चेतना, उन्मीलितं नयननलिनम् , अवलोकित दिङमण्डलम् , आलपितः पार्श्ववर्ती परिजन:-भो भो महायशः ! कथममिह महीपृष्ठे निपतित: ? कुत्र वा वैरी विद्याधरः?, I ॥३५॥
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