Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri

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Page 47
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री नरविक्रम चरित्रे | ।। ३९ ।। www.kobatirth.org वालवयस्सो मम गाढरूढपेमाणुबंध सन्यस्सो । विस्सासपयं सर्व्वसु पृच्छणिजो य कजे || १२ || सहसयणपाणभोयणचं कमणडाण करणनिरयाणं । अहं दोण्डवि कालो बोलह दढमेकचित्ताणं ।। १३ ॥ अह परियणेण मज्झं निवेश्यं एगया रहट्ठाणे । जह एम तुज्झ मित्तो विरूवचारी कलचंमि ॥ १४ ॥ असद्दहणाओं मए स परियणो वारिओ खरगिराहिं । अघडंतमेवमन्नं न भासियब्वं मह पुरोति ।। १५ ।। सयमवि दिई जं जुत्तिसंगयं तं वयंति सप्पुरिसा । सहसति मासियाई पच्छाऽपत्थंव बार्हिति ॥ १६ ॥ रविकर सरोजणे घणपडलच्छाहओऽवि विष्फुरिओ । अह एस वइयरो गोविओऽवि पणयाणुरोहेण ॥ १७ ॥ रायभवणाओं सहिंमि एगया आगओऽम्हि पेच्छामि । सयमेव तं कुमित्तं अणञ्जकमि आसतं ॥ १८ ॥ बालवयस्यो मम गाढरूढप्रेमानुबन्धसर्वस्वः । विश्वासपदं सर्वेषु प्रच्छनीयश्च कार्येषु सहशयनपानभोजनचङ्कमणस्थानकरणनिरतयोः । आवयोर्द्वयोरपि कालोऽतिक्रामति दृढमेकचित्तयोः अथ परिजनेन मम निवेदितमेकदा रहस्थाने । यथैष तव मित्रं विरूपचारि कलत्रे ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ।। १५ ।। ।। १६ ।। अश्रद्दधानेन मया स परिजनो वारितः खरगीर्भिः । अघटमानमेत्रमन्यन्न भाषितव्यं मम पुर इति स्वयमपि दृष्टं यद् युक्तिसंगतं तद्वदन्ति सत्पुरुषाः । सहसेति भाषितानि पञ्चादपथ्यमिव बाधन्ते रविकरप्रसर इव जने घनपटलाऽऽच्छादितोऽपि विस्फुरितः । अथैष व्यतिकरो गोपितोऽपि प्रणयानुरोधेन ॥ १७ ॥ राजभवनात् स्वगृहे एकदाऽऽगतोऽस्मि प्रेक्षे । स्वयमेव तत्कुमित्रमनार्यकार्ये आसक्तम् ।। १८ ।। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमित्र स्याङसभ्यता दर्शनम् ॥ ॥ ३९ ॥

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