Book Title: Nar Vikram Charitram
Author(s): Shubhankarvijay
Publisher: Ajitkumar Nandlal Zaveri

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Page 63
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 256 नरविक्रमः चरित्रे । %E1%ARY प्रव्रज्यार्थ महाकालोपदेशः ॥ ॥५५॥ * जं पुण तुमए भणियं भेरवपडणं करेमि मरणटुं । तं बृहजणपडिसिद्ध खत्तियधम्मे विरुद्धं च ॥ ५ ॥ जेण-बंभणसमणच्चिय मरणकजमब्भुजमंति नो धीरा । विहिविहडियंपि कजं घडंति ते बुद्धिविहवेणं ।। ६ ।। तहा-चत्तविसायपिसाय अणलसमविमुक्कमेकरसं । अणुमरइ सिरी दूरं गयावि पुरिसं हरिसियच ॥७॥ तओ मए भणिय-भयवं ! विमूढचित्तलक्खो म्हि संपयं, न जाणामि जुताजुत्तं न मुणामि उवायं न समीहेमि खत्तधम्मं न वियारेमि जणनिंदं न लक्खेमि सुहदुक्खं, सबड़ा कुलालदढदंडचालियचक्काधिरूढ़ व मम मणो न मणागपि कत्थवि अवत्थाणं पावइ, तो भयवं ! तुम चेव साहहि, किं काय ? को वा उवाओ समीहियत्थसिद्धीए ?, महाकालेण भणियं| वच्छ ! पवजसु मम पवजं, आराहेसु चरणकमल, अब्भस्सेसु जोगमगं, होहिंति गुरुभत्तीए मणोरहसिद्धीओ, तो भय यत्पुनस्त्वया भणितं भैरवपतनं करोमि मरणार्थम् । तद्बुधजनप्रतिषिद्धं क्षत्रियधर्म विरुद्धं च ॥ ५॥ येन-ब्राह्मणश्रमणा एव मरणकार्यमभ्युद्यच्छन्ति नो धीराः । विधिविघटितमपि कार्य घटयन्ति ते बुद्धिविभवेन ॥ ६ ॥ तथा-त्यक्तविपादपिशाचमनलसमविमुक्तकविक्रमैकरसम् । अनुसरति श्रीदूंरं गताऽपि पुरुषं हर्षितेव ॥ ७ ॥ ततो मया भणितं-भगवन् ! विमूढचित्तलक्ष्योऽरिम साम्प्रतं, न जानामि युक्तायुक्तं न जानामि उपाय न समीहे क्षत्रधर्म न विचारयामि जननिन्दा न लायामि सुखदुःखं, सर्वथा कुलालहडदण्ड चालित चक्राधिरूढमिव मम मनो न मनागपि कुत्राप्यवस्थानं प्राप्नोति, ततो भगवन् ! त्वमेव कथय किं कर्तव्यम् ? को वोपायः समीहितार्थसिद्धये ?, महाकालेन भणितं-वत्स ! प्रपद्यस्व मम प्रव्रज्याम् , आराधय चरणकमलम् , (त्व)अधीन योगमार्ग, भविष्यति गुरुभक्त्या मनोरथसिद्धयः, ततो भयसम्भ्रान्त इव शरणागत COCCARRORSCHOC400 - RECTOR: RE% For Private and Personal Use Only

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