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[प्रस्तावना
नही है कि राग और प उसका सत्य से सीधा सम्पर्क होने मे वाचा डाले हुए हैं। राग-रजित मनुष्य आसक्ति की दृष्टि से देखता है इसलिए सत्य उसके सामने अनावृत्त नहीं होता। द्वेष-रजित मनुष्य घृणा की दृष्टि से देखता है इसलिए सत्य उसने भय खाता है। सत्य उसीके सामने अनावृत होता है जो तटस्थ दृष्टि से देखता है। तटस्थ दृष्टि से वही देख सकता है जिसके नेत्र आसक्ति और घृणा से रजित नहीं होते। ० सत्य के दो रूप-अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद
भगवान् महावीर वीतरागी थे। सत्य से उनका सीधा सम्पर्क था । उन्होने जो कहा वह सुना-सुनाया या पढ़ा-पनाया नहीं कहा। उन्होंने जो कहा, वह सत्य से सम्पर्क स्थापित कर कहा। इसलिए उनकी वाणी यथार्थ का रहस्योद्घाटन और आत्मानुभूति का ऋजु उद्बोधन है। जो सत्य है वह अनुपयोगी नहीं है पर उसके कुछ अग विशेप उपयोगी होते हैं। हम परिवर्तनशील ससार मे रहनेवाले है । अतः कोरे अस्तित्ववादी ही नहीं किन्तु उपयोगितावादी भी है। हम सत्य को कोरा यथार्थवादी दृष्टिकोण ही नहीं मानते किन्तु - यथार्थ की उपलब्धि को भी सत्य मानते है।
आत्मा है और प्रत्येक आत्मा परमात्मा है-यह दोनों अस्तित्ववादी या यथार्थवादी दृष्टिकोण है। आत्मा को परमात्मा बनने की जो साधना है, वह हमारा उपयोगितावाद है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से भगवान ने कहा-आत्मा भी सत्य है और अनात्मा भी सत्य है। उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भगवान ने कहा-आत्मा