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[प्रस्तावना
यह कहने मे कोई अत्युक्ति नहीं है कि जैन धर्म जो है, वह अहिंसा है और जो अहिंसा है, वह जैन धर्म है। • अहिंसा और सत्य
कुछ विद्वान् ऐसा सोचते हैं कि जैनाचार्यों ने अहिंसा पर जितना बल दिया, उतना सत्य पर नहीं। यह उनका अपना दृष्टिकोण है इसलिए उसकी अवहेलना तो कैसे की जाय पर उनके सामने दूसरा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा सकता है। भगवान् महावीर की दृष्टि में अहिता और सत्य में कोईद्वत नहीं है। आत्मा की पूर्ण मुद्ध अपत्या -परमात्मल्प-जो है, वह अहिंसा है। सत्य उनसे भिन्न कहाँ है ? जहाँ सत्य है, वहां निश्चित रूपेण अहिंसा है और जहाँ सत्य नही है, वहाँ अहिला भी नही है। सत्य अहिंसा के परिकर में ही प्रकट होता है और हिता असत्य के साथ चली जाती है। तो हम नहीं कह सकते कि जहाँ अहिंसा है वहां सत्य है और जहाँ सत्य है वहाँ अहिंसा है? ये दोनों परस्पर इस प्रकार व्याप्त है कि इन्द्व त की दृष्टि ने नहीं देखा जा सकता। • जैन धर्म और सत्य
कोई भी वस्तु प्राचीन होती है, इसलिए अच्छी नहीं होती और नई होती है इसलिये बुरी नहीं होती। जैन धर्म पुराना है इसलिए अच्छा है, यह कोई तन नहीं है, फिर भी इसमे कोई सन्देह नहीं कि वह बहुत पुराना है और इतना पुराना है कि इतिहास की व्हां तक पहुँच ही नही है। भगवान् महावीर और भगवान् पार्व इतिहास