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अहिसा और धर्म ]
• अहिंसा और धर्म
भ० महावीर श्रमण परम्परा मे अवतीर्ण हुए। उन्होने निर्ग्रन्य दीक्षा स्वीकार की । भगवान् ऋषभ ने धर्म की स्थापना की । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म की व्यवस्था की । भगवान् महावीर ने पुनः पचयाम धर्म की स्थापना की। इसका कारण यह बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु जड थे इसलिए पंचयाम की व्यवस्था की गई— ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पृथक्-पृथक् महाव्रतमाने गए। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरो के साधु ऋजु प्राज्ञ थे इसलिए चातुर्याम से काम चल गया । ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक ही शब्द- 'वहिद्धादाण विरमण' मे संग्रहीत कर लिया गया । भगवान्
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महावीर के शिष्य वक्र-जड हुए इसलिए उन्हें पुन. भगवान् ऋषभ का अनुसरण करना पड़ा । यह युक्ति सुन्दर है, फिर भी इस व्यवस्थाभेद का मूल कारण यही है, यह समझने में कठिनाई है । यह बहुत हो मीमासनीय विषय है। जिस प्रकार अहिंसा धर्म के लिए नव तीर्थकरो की एकसूत्रता बतलाई है, उसी प्रकार अन्य धर्मों की नही बतलाई, इसका कारण क्या है ? या तो अहिना मे दोष सारे धर्मो को वे समाहित कर लेने थे अथवा कोई दूसरा कारण था - निरचय पूर्वक कुछ भी नही कहा जा सकता। जैन धर्म में जाचार का स्थान बहुत प्रमुख रहा है । एक दृष्टि से उसे आचार और नोि प्रवर्तक कहा जा सकता है । जीवन को सारी प्रतियो की व्याया एक अहिसा दाव्द के आधार पर की जाती है। संभव है एम हेष्टि हो हो सो
समान
माना गया हो।
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