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[प्रस्तावना
आत्मा देह से भिन्न है, आत्मा ही परमात्मा है यह हमे ज्ञात है, फिर भी हम इस सत्य को तव तक नही पकड पाते जब तक हम स्वय सत्य रूप नही बन जाते। भगवान महावीर का सबसे श्रेष्ठ उपदेश यही है कि तुम स्वय सत्य रूप वनकर सत्य को पकडो। वह तुम्हारी पकड मे आ जाएगा। तुम असत्यं रूप रहकर उसे नहीं पा सकोगे।
दुःख कामना से उत्पन्न होता है-यह जानते हुए भी मनुष्य दुःख मिटाने के लिए कामना के जाल में फंसता है। वैर-वैर से वडता है-यह जानते हुए भी मनुष्य वैर को बढ़ावा देता है। शस्त्र अशान्ति को उत्तेजित करता है यह जानते हुए भी मनुष्य शान्ति के लिए शस्त्र का निर्माण करता है। भगवान ने कहादुःख का पार वही पा सकता है जो कामना को जानता है और उसे छोडना भी जानता है। वर का पार वही पा सकता है जो वैर के परिणाम को जानता है और उसे छोडना भी जानता है। शस का पार वही पा सकता है जो अगान्ति को जानता है और उसे छोडना भो जानता है। भगवान को भाषा मे वह ज्ञान ज्ञान नही जो त्याज्य को त्याग न सके। उनका ज्ञान भी आत्मा है, दर्शन भी आत्मा है और चारित्र भी आत्मा है। भगवान का सारा धर्म आत्ममय है। उनका सारा उपदेश आत्मा को परिधि मे है। इसलिए जो कोई आत्मवोर होता है, जिसमे आत्म-जिज्ञासा या आत्मोपलव्य की भावना प्रबल हो जाती है, उसके लिए भगवान महावीर की वाणी को पड़ना अनिवार्य या महज प्राप्त हो जाता है।