________________
-
प्रस्तावना
१५
बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका परित्याग कर उस आश्रमविधिको ग्रहण किया था जिसमें अणुमात्र भी आरम्भ नहीं है, क्योंकि जहां अणुमात्र भी आरम्भ होता है वहां अहिंसाका वास नहीं अथवा पूर्णतः वास नहीं बनता। जो साधु यथाजातलिङ्ग के विरोधी विकृत वेषों और उपाधियोंमें रत है. उन्होंने वस्तुतः बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है-और इसलिये ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती। उनका
आभूषण वेष, तथा व्यवधान ( वस्त्र-आवरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको लिये हुए ( नग्न दिगम्बर ) शरीर काम, क्रोध और मोह पर विजय का सूचक था।
(२२) अरिष्टनेमि-जिनने , परमयोगाग्निसे कल्मपेन्धनको-- ज्ञाना-वरणादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया था और सकल पदार्थो को जाना था । वे हरिवंशकेतु थे, विकसित कमलदलके समान दीर्घनेत्रके धारक थे, और निर्दोष विनय तथा दमतीर्थके नायक हुए हैं । उनके चरणयुगल त्रिदशेन्द्र-वन्दित थे। उनके चरणयगलको दोनों लोकनायकों गरुड़ध्वज ( नारायण ) और हलधर (बलभद्र) ने, जो स्वजनभक्ति से मुदितहृदय थे और धर्म तथा विनयके रसिक थे, बन्धुजनों के साथ बार-बार प्रणाम किया है । गरुडध्वजका दीप्तिमण्डल द्यतिमद्रथांग (सुदर्शनचक्र) रूप रविबिम्बकी किरणोंसे जटिल था और शरीर नीले कमलदलोंकी राशिके अथवा सजलमेघके समान श्यामवर्ण था। इन्द्र-द्वारा लिखे गये नेमिजिनके लक्षणों (चिन्हों) को वह लोकप्रसिद्ध ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार पर्वत ) धारण करता है जो पृथ्वीका ककुद है, विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे सेवित-शिखरोंसे अलंकृत है, मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है, तीर्थस्थानहै और आज भी भक्तिसे उल्लसितचित्त-ऋषियोंके द्वारा सब ओरसे निरन्तर