________________
५२
समन्तभद्र-भारती
तारका-परिवृतोऽतिपुष्कलो
व्योमनीव शश-लाञ्छनोऽमलः ॥ २॥ 'जिस प्रकार निर्मल-धन-पटलादि-मलसे रहित--पूर्णचन्द्रमा आकाशमें ताराओंसे परिवेष्ठित हुआ शोभता है उसी | प्रकार ( हे धर्मजिन !) आप देव और मनुष्योंके उत्तम समूहोंसे 2 परिवेष्ठित तथा गणधरादिबुधजनोंसे परिवारित (सेवित ) हुए ( समवसरण-सभामें ) शोभाको प्राप्त हुए हैं।'
प्रातिहार्य-विभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषनरामरान्
नाऽपि शासन-फलेषणाऽऽतुरः ॥ ३ ॥ ___'प्रातिहार्यों और विभवोंसे-छत्र, चमर, सिंहासन, भामंडल, अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि और दिव्यध्वनिरूप अाट प्रकारके चमत्कारों तथा समवसरणादि-विभूतियांसे—विभूषित होते हुए भी आप ! उन्हींसे नहीं किन्तु देहसे भी विरक्त रहे हैं अपने शरीरसे भी आपको ममत्व एवं रागभाव नहीं रहा । (फिर भी तीर्थकर-प्रकृतिरूप पुण्यकर्मके उदयसे ) आपने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिख-. लाया है-मुक्तिकी प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अमोघ ।
उपाय बतलाया है । परन्तु आप शासन-फलकी एषणासे आतुर ! में नहीं हुए-कभी आपने यह इच्छा नहीं की कि मेरे उपदेशका फल ।
जनताकी भक्ति अथवा उसकी कार्यसिद्धि आदिके रूपमें शीघ्र प्रकट होवे। और यह सब परिणति अापकी वीतरागता, परिमुकता और उच्चताकी ।