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समन्तभद्र-भारती
| 'अाम्राः' पदमें आम्रत्व-सामान्यरूपसे विवक्षित होता है तब अाम्रके विशेष । * देशी, कलमी,लंगड़ा,माल्दा, फज़ली आदि धर्म गौण (अविवक्षित) हो जाते हैं
हैं और उसी आम्रपदमें रहते हैं । यही बात द्रव्य और पर्यायकी विवक्षामें अविवक्षाकी होती है। एक ही वृक्ष द्रव्य-सामान्यकी अपेक्षा एकरूप है तो ।
वही अंकुरादि पर्यायोंकी अपेक्षा अनेक रूप है। दोनोंमें जिस समय जो
स्विक्षित होता है वह मुख्य और दूसरा गौण कहलाता है। इस तरह , प्रत्येक पदका वाच्य एक और अनेक दोनों ही होते हैं ।
(यदि पद-शब्दका वाच्य एक और अनेक दोनों हों तो 'अस्ति' कहनेपर 'नास्तित्व के भी बोधका प्रसंग आनेसे दूसरे पद 'नास्ति' का प्रयोग । निरर्थक ठहरेगा, अथवा स्वरूपकी तरह पररूपसे भी अस्तित्व कहना होगा। ! इसी तरह 'नास्ति' कहनेपर 'अस्तित्व' के भी बोधका प्रसंग आएगा,
दूसरे 'अस्ति' पदका प्रयोग निरर्थक ठहरेगा अथवा पररूपकी तरह स्वरूपसे भी नास्तित्त्व कहना होगा। इस प्रकारकी शंकाका समाधान यह है-) अनेकान्तात्मक वस्तु के अस्तित्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन । करनेपर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्मके प्रतिपादन
में जिसकी आकांक्षा रहती है ऐसे आकांक्षी-सापेक्षवादी अथवा * स्याद्वादीका 'स्यात्' यह निपात–'स्यात्' शब्दका साथमें प्रयोग
गौणकी अपेक्षा न रखने वाले नियममें--सर्वथा एकान्त मतमेंनिश्चित रूपसे बाधक होता है-उस सर्वथाके नियमको चरितार्थ नहीं है होने देता जो स्वरूपकी तरह पररूपके भी अस्तित्वका और पररूपकी तरह
स्वरूपके भी नास्तित्वका विधान करता है (और इस लिये यहाँ उक्त * प्रकारकी शंकाको कोई स्थान नहीं रहता)।
गुण-प्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् ।