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स्वयम्भू-स्तोत्र .
कथंचित् असत्वशक्ति भी होती है-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी । 2 अपेक्षा वह असत् है--; जैसे पुष्प. वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये ! हुए प्रसिद्ध है परन्तु आकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है, आका
शकी अपेक्षा वह असत्-रूप है-यदि पुष्प-वस्तु सर्वथा सत्रूप हो । * तो आकाशके भी पुष्प मानना होगा और यदि, सर्वथा असत्रूप हो तो ! वृक्षोंपर भी उसका अभाव कहना होगा। परन्तु यह मानना और कहना । दोनों ही प्रतीतिके विरुद्ध होनेसे ठीक नहीं हैं । इसपरसे यह फलित होता.
है कि वस्तु-तत्त्व कथंचित् सत्रूप और कथंचित् असत्रूप है-स्वद्रव्यादि
चतुष्टयकी अपेक्षा जहाँ सत्स्वरूप है वहाँ पर-द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा । * असतूरूप भी है। किसी भी वस्तुके स्वरूपकी प्रतिष्ठा उस वक्त तक नहीं
बन सकती जब तक कि उसमेंसे पररूपका निषेध न किया जाय । आम्र- ! फलको अनार, सन्तरा या अंगूर क्यों नहीं कहते १ इसी लिये न कि उसमें
अनारपन, सन्तरापन, तथा अंगूरपन नहीं है---वह अपने में उनके स्वरूप* का प्रतिषेधक है । जो अपनेमें पररूपका प्रतिषेधक नहीं वह स्व-स्वरूपका
प्रस्थापक भी नहीं हो सकता । इसीसे प्रत्येक वस्तुमें अस्तित्व और नास्ति| तत्व दोनों धर्म होते हैं और वे परस्पर अविनाभावी होते हैं--एकके ।
बिना दूसरेका सद्भाव बन नहीं सकता। र यदि वस्तुतत्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय-उसमें अस्ति। त्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मोंका सर्वथा अभाव स्वीकार किया । * जाय-तो वह अप्रमाण ठहरता है-उस तत्त्वका तब कोई व्यवस्थापक ! नहीं रहता । इसीसे (हे सुमति जिन !) आपकी दृष्टिसे सर्व-जीचादि !
तत्त्व कथंचित् संत-असत्रूप अनेकान्नात्मक हैं । इस मत्तसे भिन्न• दूसरा सत्त्वाद्वैतलक्षण अथवा शून्यतैकान्तस्वभावरूप जो एकान्त तत्त्व हैमत है-वह स्ववचनविरुद्ध है-उसी प्रमाणता बतलानेमें प्रमाण- |