________________
___ समन्तभद्र-भारती
अङ्गगम जङ्गम-नेय-यन्त्रं यथा तथा जीव-धृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च
स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्यः ॥२॥ । 'जिस प्रकार अजगम ( जड ) यंत्र स्वयं अपने कार्य में प्रवृत्त । न होकर जंगम पुरुषके द्वारा चलाया जाता है उसी प्रकार जीवके
द्वारा धारण किया हुआ यह शरीर अजंगम है-बुद्धिपूर्वक परिस्पन्द| व्यापारसे रहित है--और चेतन-पुरुषके द्वारा स्वव्यापार में प्रवृत्त । किया जाता है। साथ ही, बीभत्सु है-घृणात्मक है--,पूति हैदुर्गन्धियुक्त है-,क्षयि है-नाशवान् है-और तापक है-अात्माके दुःखोंका कारण है । इस प्रकारके शरीर में स्नेह रखना-अतिअनुराग बढ़ाना-वृथा है-उससे कुछ भी आत्मकल्याण नहीं सध सकता। यह हितकी बात हे सुपार्श्व जिन ! आपने बतलाई है।'
अलंध्यशक्तिभवितव्यतेयं हेतु-द्वयाऽऽविष्कृत-कार्य-लिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः
संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३॥ : 'आपने यह भी ठीक कहा है कि हेतुद्वयके अन्तरंग और बाह्य अर्थात् उपादान ओर निमित्त दोनों कारणोंके--अनिवार्य संयोग-द्वारा ! उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता । (जो हितका समुचित एवं समर्थ उपदेश मिलनेपर भी किसीकी हितमें प्रवृत्ति नहीं होने देती) अलंध्यशक्ति है-किसी तरह भी टाली नहीं !