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स्वयम्भू-स्तोत्र
कहलाता है, और जो अविवक्षित होता है वह निरात्मक (अभावरूप) । नहीं होता-उसकी सत्ता अवश्य होती है । इस प्रकार मुख्य-गौण
की व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और अनुभयादि शक्तियों1 को लिये रहती है--एक ही व्यक्ति एक का मित्र है (उपकार-करनेसे),
दूसरेका शत्रु है (अपकार करनेसे), तीसरेका शत्रु-मित्र दोनों है (उपकार: | अपकार करनेसे) और चौथेका न शत्रु है न मित्र (उसकी ओर उपेन्ना ! में धारण करनेसे), और इस तरह उसमें शत्रु-मित्रादिके गुण युगवत् रहते हैं। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं) से कार्यकारी होती हैविधि-निषेधरूप, सामान्य-विशेषरूप अथवा द्रव्य-पर्यायरूप दो दो सापेक्ष धर्मोंका आश्रय लेकर ही अर्थक्रिया करनेमें प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है।'
दृष्टान्त-सिद्धावुभयोविवादे साध्यं प्रसिद्ध्येन तु तागस्ति । यत्सर्वथैकान्त-नियामि दृष्टं
त्वदीय-दृष्टिविभवत्यशेषे ॥४॥ 'वादी प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्त (उदाहरण) की * सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है-जिसे सिद्ध करना चाहते हैं , उसकी भले प्रकार सिद्धि होजाती है, परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत | वस्तु है ही नहीं जो (उदाहरण बनकर) सर्वथा एकान्तकी नियामक । में दिखाई देती हो । क्योंकि आपकी अनेकान्त-दृष्टि सबमें-साध्य, ! साधन और दृष्टान्तादिमें अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अने- ! में कान्तात्मकत्वसे व्याप्त है, इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोंके मतमें ऐसा कोई ।
दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वथा एकान्तका नियामक हो और | इस लिए उनके सर्वथा नित्यात्वादिरूप साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती।' ।