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समन्तभद्र-भारती
ककुदं भुवः खचरयोषिदुषित-शिखरैरतकृतः । मेघ-पटल-परिवीत-तटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥७॥ बहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च। प्रीति-वितत-हृदयैः परितो
भृशमूर्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः॥८॥ 'जो पृथ्वीका ककुद है-बैलके कन्धेके समीप स्थित ककुदनामक मर्वोपरिभाग जिस प्रकार शोभासम्पन्न होता है उसी प्रकार जो पृथ्वीके सब अवयवोंके ऊपर स्थित शोभा सम्पन्न उच्चस्थानकी गरिमाको प्राप्त है-विद्याधरोंको स्त्रियोंसे सेवित शिग्वरोंसे अलंकृत है और ! मेघपटलोंसें व्याप्त तटोंको लिये हुए है वह विश्रुत-लोकप्रसिद्ध-- ऊर्जयन्त (गिरनार ) नामका पर्वत ( हे नामजन ) इन्द्रद्वारा लिखे गये-उत्कीर्ण हुए-आपके चिन्होंको धारण करता है, इसलिए ।
तीर्थस्थान है और आज भी भक्तिस उल्लसितचित्त ऋपियोंद्वारा ! सब ओरसे निरन्तर अतिसवित है-भक्तिभरे ऋषिगण अपनी
अात्मसिद्धि के लिये बड़े चावसे आपके उन्म पुण्यस्थानका प्राश्रय लेन रहते हैं।'
वहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत ।