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.ममन्तभद्र-मारती
। उत्पत्ति अथवा ज्ञप्ति नहीं बनती। ( कैसे नहीं बनती, यह बात ॐ 'सुयुक्तिनीत-तत्त्व' को स्पष्ट करते हुए अगली कारिकाओंमें बतलाई गई है)।'
अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदाऽन्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे
तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥२२॥ ___वह सुयुक्तिनीत वस्तुतत्त्व भेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और
अनेक तथा एकरूप है--भेदज्ञानकी-पर्यायकी-दृष्टिसे अनेकरूप हैं । तो वही अभेदज्ञानकी-द्रव्यकी-दृष्टिसे एकरूप है और यह वस्तुको भेद-अभेदरूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है-प्रमाण है। जो लोग इनमेंसे एकको ही सत्य मानकर दूसरेमें उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि ( दोनोंका परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध होनेसे ) दोनोंमेंसे एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। दोनोंका अभाव हो जानेसे वस्तुतत्व अनुपाख्य-निःस्वभाव हो जाता है और तब वह न तो एकरूप रहता है और न अनेकरूप । स्वभावका अभाव होनेसे उसे किसी रूपमें कह नहीं सकते, और इससे सम्पूर्ण व्यवहारका ही लोप ठहरता है।'
मतः कथञ्चित्तदमत्व-शक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । मर्व-स्वभाव-च्युतमप्रमाणं
स्व-वाग्विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत् ॥ २३ ॥ . . जो सत है-वंद्रव्य-क्षेत्र काल-भावसे विद्यमान है-उसके ।