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प्रस्तावना
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कारिकामें, अजित जिनकी स्तुति करते हुए, उनके नामको 'परमपवित्र' बतलाया है और लिखा है कि श्रीन भी अपनी सिद्धि चाहनेवाले लोग उनके परम पवित्र नामको मंगलके लिये-पापको गालने अथवा विघ्न-बाधाओंको टालनेके लिये-बड़े आदरके साथ लेते हैं
अद्यापि यस्याऽजित-शासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् । प्रगृह्यते नाम परम - पवित्रं
स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ।।७|| जिन अर्हन्तोंका नाम-कीर्तन तक पापोंको दूर करके आत्माको पवित्र करता है उनके शरण में पूर्ण-हृदयसे प्राप्त होनेका तो फिर कहना हो क्या है-वह तो पाप-तापको और भी अधिक शान्त करके आत्माको पूर्ण निर्दोष एवं सुख-शान्तिमय बनानेमें समर्थ है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अनेक स्थानोंपर ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्ति-निलयः' (१२०) जैसे वाक्योंके साथ अपनेको अर्हन्तोंकी शरणमें अपण किया है। यहाँ इस विषयका एक खास वाक्य उद्धृत किया जाता है, जो शरणप्राप्तिमें कारणके भी स्पष्ट उल्लेखको लिये हुए हैं
स्वदोष-शान्त्या.विहितात्म-शान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै
शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥८॥ इसमें बतलाया है कि वे भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-मैं उनकी-शरण लेता हूँ-जिन्होंने अपने दोषोंकी-अज्ञान,