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समन्तभद्र-भारती
. प्राणियों के लिए परम हितरूप हैं - राग-द्वेषादि - हिंसाभावों से पूर्णतया रहित होनेके कारण किसी के भी हितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने आदर्शसे सभी भविकजनोंके ग्रात्म-विकासमें सहायक हैं- ,आवरणरहित ज्योतिको लिये हुए हैं - केवलज्ञान के धारक है - और उज्ज्वलधामको—मुक्तिस्थानको — प्राप्त हुए हैं अथवा अनावरण ज्योतियोंसे—केवलज्ञानके प्रकाशको लिए हुए मुक्तजीवोंसे—जो स्थान प्रकाशमान है उसको - सिद्धिशिलाको — प्राप्त हुए हैं ।' सभ्यानामभिरुचितं
दधासि गुण-भूषणं श्रिया चारु - चितम् । मग्नं स्वस्यां रुचितं
जयसि च मृग-लाञ्छनं स्व-कान्त्या रुचितम् ||५|| ' (हे वीर जिन ! ) आप उस गुणभूषण को - सर्वज्ञ - वीतरागतादिरूप गुणोंके आभूषणोंको — धारण किए हुए हैं जो सभ्यजनों अथवा समवसरण सभा - स्थित भव्यजनोंको रुचिकर है— इष्ट है — और श्रीसे—ष्ट प्रातिहार्यादिरूप विभूतिसे ऐसे रूपमें पुष्ट है जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। और अपने शरीरकी कान्तिसे आप उस मृगलाञ्छन- चन्द्रमाको जीतते हैं जो अपनी
तन है और सबको सुन्दर तथा प्यारा मालूम होता हैआपके शरीरका सौन्दर्य और आकर्षण पूर्ण चन्द्रमासे भी बढ़ा चढ़ा है । ' त्वं जिन ! गत-मद-माय
स्तव भावानां मुमुक्षु- कामद ! मायः । श्रेयान् श्रीमदमाय
स्त्वया समादेशि सप्रयाम - दमाऽयः ||६||