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स्वयम्भू-स्तोत्रं .
| आकुलताएँ सदा घेरे रहती हैं । संताप-परम्पराके बराबर चालू रहनेसे । . प्राप्त हुए थोड़ेसे इन्द्रिय-विषय-सुखसे इस प्राणीकी स्थिति सुख
पूर्वक नहीं बनती। इस प्रकार लोकहितके प्रतिपादनको लिए । हुए चूँकि आपका मत है-शासन है-इस लिये हे अभिनन्दन है प्रभु ! आप ही जगत्के शरणभूत हैं, ऐसा सत्पुरुषोंने मुक्तिकै ! अर्थी विवेकी जनोंने-माना है।'
श्रीसुमति-जिन-स्तवन
अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्ति-नीतम् । यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति
सर्व-क्रिया कारक-तत्त्व-सिद्धिः ॥ १ ॥ 'हे सुमति मुनि ! आपकी 'सुमति' (श्रेष्ठ-सुशोभन मति ) यह संज्ञा अन्वर्थक है-आप यथा नाम तथा गुण है--; क्योंकि एक तो * आपने स्वयं ही-बिना किसीके उपदेशके सुयुक्तिनीत तत्त्वको ! माना है--उस अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वको अंगीकार किया है जो अकाटय , युक्तियों के द्वारा प्रणीत और प्रतिष्ठित है-- दूसरे आपके (अनेकान्त ) 1 मतसे भिन्न जो शेष एकान्त मत हैं उनमें सम्पूर्ण क्रियाओं तथा | कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी ।