________________
३८
:
〃
:
समन्तभद्र-भारती
܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀
८
' ( हे श्रेयास जिन ! ) आपके मतमें वह विधि -- स्वरूपादिचतुष्टयसे अस्तित्व-- प्रमाण है ( प्रमाणका विषय होनेसे) जो कथंचित् तादात्म्य सम्बन्धको लिये हुए प्रतिषेध रूप है -- पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है तथा इन विधि- प्रतिषेध दोनोंमें से | कोई एक प्रधान (मुख्य) और दूसरा गौण होता है (वक्ता अभि: प्रायानुसार न कि स्वरूप से) । और मुख्य के -- प्रधानरूप विधि अथवा निषेधके - नियामका ' स्वरूपादिचतुष्टयसे ही विधि और पररूपादिचतुष्टयसे ही निषेध' इस नियमका -जो हेतु है वह नय है ( नयका : विषय होनेसे) और वह नय दृष्टान्त - समर्थन होता है -- दृष्टान्तसे समर्थित अथवा दृष्टान्तका समर्थक ( उसके असाधारण स्वरूपका निरूपक) होता है ।
गुणोऽपरो मुख्य नियामहेतुर्नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥ २ ॥
विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोsarat न निरात्मकस्ते । तथाऽरिमित्राऽनुभयादिशक्ति
द्वयाऽवधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥ ३ ॥
:
C
' (हे श्रेयांस जिन ! ) आपके मतमें जो विवक्षित होता है-: कहने के लिये इष्ट होता है - वह 'मुख्य (प्रधान)' कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है - जिसका कहना इष्ट नहीं होता - वह 'गौराण'
* स्वरूपसे प्रधान अथवा गौण मानने पर उसके सदाकाल तद्रूप बने रहनेका प्रसंग आएगा, और यह बात बनती नहीं; क्योंकि प्रत्यक्षादिके साथ इसका विरोध है ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀܀