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..समन्तभद्र-भारती
| ज्ञानी-मुनिकी प्रशम-जलसे भरी हुई वाक्य-रश्मियाँ-यथावत् - अर्थस्वरूपकी प्रकाशक वचन-किरणावलियाँ-जिस प्रकारसे--संसार
तापको मिटाने रूपसे---विद्वानोंके लिये--हेयोपादेय-तत्त्वका विवेक रखनेवालोंके वास्ते-शीतल हैं-शान्तिप्रद हैं-उस प्रकार न तो चन्दन तथा चन्द्रमाकी किरणें शीतल हैं, न गंगाका जल शीतल है और न मोतियोंके हारकी लड़ियाँ ही शीतल हैं--कोई भी इनमें से भव-याताप-जन्य दुःखको मिटानेमें समर्थ नहीं है।'
सुखाऽभिलाषाऽनल-दाह-मूच्छितं मनो निजं ज्ञानमयाऽमृताऽम्बुभिः । व्यदिध्यमस्त्वं विष-दाह-मोहितं
यथा भिषग्मन्त्र-गुणैः स्व-विग्रहम् ॥२॥ " जिस प्रकार वैद्य विष-दाहसे मूच्छित हुए अपने शरीरको विषापहार मन्त्रके गुणोंसे-उसकी अमोघशक्तियांसे-निर्विष एवं मूर्छा-रहित कर देता है उसी प्रकार ( हे शीतल जिन ! ) आपने सांसारिक सुखोंकी अभिलाषा-रूप अग्निक दाहसे-चतुर्गति-सम्ब
न्धी दुःखसंतापसे--मूर्छित हुए हेयोपादेयके विवेक से विमुख हुए| अपने भनको अात्माको-ज्ञानमय अमृत-जलोंके सिचनसे मूर्छा
रहित शान्त किया है-पूर्ण विवेकको जाग्रत करके उसे उत्तरोत्तर संतापप्रद सांसारिक सुखोंकी यांभला पासे मुक्त किया है।'
. स्व-जीविते काम-सुखे च तृष्णया
दिवा श्रमात निशि शेरते प्रजाः ।