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• समन्तभद्र-भारती
तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथाप्रतीतेस्तव तत्कथञ्चित् । । नाऽत्यन्तमन्यत्वमनन्यता च
विधेनिषेधस्य च शून्य-दोषात् ॥ २॥ ! (हे मुविधि जिन !) आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप (सद्रूप)
है और कथंचित् तद्रप नहीं (असद्रप) है; क्योंकि (स्वरूप-पररूपकी 1. अपेक्षा-उसके द्वारा) वैसी ही सत्-असतरूपकी प्रतीति होती है। | म्वरूपादि-चतुष्टयरूप विधि और पररूपादि-चतुष्टयरूप निषेधके
परस्पर में अत्यन्त (सर्वथा) भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या भिन्नता माननेपर शून्य-दोष आता हैअविनाभाव-सम्बन्धके कारण विधि और निषेध दोनों से किसीका भी तब अस्तित्व बन नहीं सकता, संकर दोपके भी श्रा उपस्थित होनेसे पदाथोंकी कोई व्यवस्था नहीं रहती, और इसलिए वस्तुतत्वके लोपका प्रसङ्ग श्रा जाता है।'
नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेनं नित्यमन्य-प्रतिपत्ति-सिद्धः। न तद्विरुद्धं बहिरन्तरङ्ग
निमित्त-नैमित्तिक-योगतम्ते ॥३॥ . 'यह वही है, इस प्रकार की प्रतीति होनेसे वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहीं-अन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धिसे । वस्तुतत्त्व नित्य नहीं-अनित्य है । वस्तुतत्वका नित्य और अनित्य दोनोंरूप होना तुम्हारे मतमें विरुद्ध नहीं है; क्योंकि वह बहिरङ्ग ।