________________
स्वयम्भू-स्तोत्र :
१६ श्रीमल्लि-जिन-स्तवन
यस्य महर्षेः सकल-पदार्थप्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । साऽमर-मत्यं जगदपि सर्व
प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म ॥१॥ __'जिन महर्षिके सकल-पदार्थोंका प्रत्यवबोध-जीवादिसम्पूर्ण पदार्थोंको मब अोरस अशेष-विशेषको लिये हुए जाननेवाला परि
ज्ञान (केवलज्ञान)-साक्षात् (इन्द्रिय-श्रुतादि-निरपेक्ष प्रत्यक्ष ) रूपसे र उत्पन्न हुआ, (और इसलिये ) जिन्हें देवों तथा मर्त्यजनोंके साथ
सारे ही जगतने हाथ जोड़कर नमस्कार किया; ( उन मल्लिजिनकी मैंने शरण ली है।)'
यस्य च मृतिः कनकमयीव ख-स्फुरदाभा-कृत-परिवेषा । वागपि तत्त्वं कथयितुकामा
स्यात्पद-पूर्वा रमयति साधून ॥२॥ जिनकी मूर्ति-शरीराकृति-सुवर्णनिर्मित-जैसी है और स्फुरायमान आभासे परिमण्डल किये हुए है-सम्पूर्ण शरीरको | व्याप्त करनेवाला भामण्डल बनाये हुए है-, वाणी भी जिनकी 'स्यात्' ।