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समन्तभद्र-भारती
- लक्ष्मी-विभव-सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्र-लाञ्छनम् ।
साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तणमिवाऽभवत् ॥३॥ ____ 'लक्ष्मीकी विभूतिके सर्वस्वको लिये हुए जो चक्रलाञ्छन -चक्रवर्तित्वका-सार्वभौम • साम्राज्य आपको सम्प्राप्त था, वह ! मुमुक्षु होनेपर-मोक्ष प्राप्तिको इच्छाको चरितार्थ करनेके लिये उद्यत होनेपर-आपके लिये जीर्ण तृणके समान हो गया-आपने उसे निःसार समझ कर त्याग दिया।' ___ तव रूपस्य सौन्दर्यं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् ।
द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो वभूव बहु-विस्मयः ॥४॥
'आपके रूप-सौन्दर्यको देखकर दो नेत्रोंवाला इन्द्र तृप्तिको ! प्राप्त न हुआ-उसे आपको अधिकाधिकरूपसे देखनेकी लालसा बनी ।
ही रही-(और इसलिये विक्रिया-द्वारा) वह सहस्र-नेत्र बन कर देखने लगा, और बहुत ही आश्चर्यको प्राप्त हुआ।'
मोहरूपो रिपुः पापः कषाय-भट-साधनः ।
दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रस्त्वया धीर ! पराजितः ॥५॥ __ 'कषाय-भटोंकी-क्रोध-मान-माया-लोभादिककी-सैन्यसे युक्त जो मोहरूप-मोहनीय कर्मरूप-पापी शत्रु है-अात्माके गुणोंका ! प्रधानरूपसे घात करनेवाला है-उसे हे धीर अर-जिन । आमने १ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा-परमौदासीन्य-लक्षण सम्यक्i चारित्र-रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित कर दिया है।'
* 'संप' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका पाठ ।