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समन्तभद्र-भारती
। पदपूर्वक यथावत् वस्तुतत्त्वका कथन करनेवाली है और साधु- । - जनोंको रमाती है आकर्षित करके अपनेमें अनुरक्त करती है; ( उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है । )' .
यस्य पुरस्ताद्विगलित-माना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदमासी
जात-विकोशाम्बुज-मृदु-हासा ॥ ३ ॥ 'जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थजन-एकान्तवाद-! मतानुयायो-पृथ्वीपर विवाद नहीं करते थे और पृथ्वी भी (जिनके । विहारके समय) पद-पदपर विकसित कमलोंसे मृदु-हास्यको लिये हुए रमणीक हुई था; ( उन मल्लि-जिनकी मैने शरण ली है।)'
यस्य समन्ताज्जिन-शिशिरांशोः शिष्यक-साधु-ग्रह-विभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जनन-समुद्र
त्रासित-सत्वोत्तरण-पथोऽग्रम् ॥ ४ ॥ ' (अपनी शीतल-वचन-किरणोंके प्रभावसे संसार-तापको शान्त करनेवाले) जिन जिनेन्द्र-चन्द्रका विभव (ऐश्वर्य) शिष्य-साधु-ग्रहोंके ! रूपमें हुआ था-प्रचुर परिमाणमें शिष्य-साधुश्रांके समूहसे जो व्याप्त ! * थे--, जिनका आत्मीय तीर्थ-शासन-भी संसार-समुद्रसे भयहै भीत प्राणियोंको पार उतरने के लिये प्रधान मार्ग बना है; (उन १
मल्लि-जिनेन्द्रकी मैंने शरण ली है।)'