Book Title: Swayambhu Stotram
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 180
________________ ७० . समन्तभद्र-भारती । पदपूर्वक यथावत् वस्तुतत्त्वका कथन करनेवाली है और साधु- । - जनोंको रमाती है आकर्षित करके अपनेमें अनुरक्त करती है; ( उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है । )' . यस्य पुरस्ताद्विगलित-माना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदमासी जात-विकोशाम्बुज-मृदु-हासा ॥ ३ ॥ 'जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थजन-एकान्तवाद-! मतानुयायो-पृथ्वीपर विवाद नहीं करते थे और पृथ्वी भी (जिनके । विहारके समय) पद-पदपर विकसित कमलोंसे मृदु-हास्यको लिये हुए रमणीक हुई था; ( उन मल्लि-जिनकी मैने शरण ली है।)' यस्य समन्ताज्जिन-शिशिरांशोः शिष्यक-साधु-ग्रह-विभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जनन-समुद्र त्रासित-सत्वोत्तरण-पथोऽग्रम् ॥ ४ ॥ ' (अपनी शीतल-वचन-किरणोंके प्रभावसे संसार-तापको शान्त करनेवाले) जिन जिनेन्द्र-चन्द्रका विभव (ऐश्वर्य) शिष्य-साधु-ग्रहोंके ! रूपमें हुआ था-प्रचुर परिमाणमें शिष्य-साधुश्रांके समूहसे जो व्याप्त ! * थे--, जिनका आत्मीय तीर्थ-शासन-भी संसार-समुद्रसे भयहै भीत प्राणियोंको पार उतरने के लिये प्रधान मार्ग बना है; (उन १ मल्लि-जिनेन्द्रकी मैंने शरण ली है।)'

Loading...

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206