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समन्तभद्र-भारती
एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धिन्यायेषुभिश्मोहरिपुं निरस्य । . असि स्म कैवल्य-विभूति-सम्राट
ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः॥५॥ (५५) । ''हे अर्हन्-श्रेयो जिन ! आप एकान्त दृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि! रूप न्यायवाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक् प्रहारोंसे-मोह-शत्रुका अथवा
मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रु-समूहकाघातिकर्म-चतुष्टयका-नाश करके कैवल्य-विभूतिके-केवलज्ञानके
साथ साथ समवसरणादि विभूतिके-सम्राट् हुए हैं। इसीसे आप मेरी : स्तुतिके योग्य हैं। मैं भी एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिका उपासक , हूँ और उसे पूर्णतया सिद्ध करके मोह शत्रुका नाश कर देना चाहता हूँ • तथा कैवल्यविभूतिका सम्राट बनना चाहता हूँ, अतः आप मेरे लिए , श्रादर्शरूपमें पूज्य हैं-स्तुत्य हैं ।'
* 'सिद्धिायेषुभि' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका पाठ ।