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समन्तभद्र-भारती
धीन किया है और इस तरह अात्मविकासकी उच्च स्थितिपर पहुँचकर योग- । निरोध द्वारा न मनसे कोई कर्म होने दिया, न वचनसे और न शरीरसे। ! भावार्थ-मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं। इस योगसे अात्मा- ! * में कर्मका अास्रव तथा बन्ध होता है, जो पुनर्जन्मादिरूप-संसारपरिभ्रमण
का हेतु है । अतः आपने तो इस योगरूप कर्मको रोककर अथवा स्वाधीन | बनाकर संसार-परिभ्रमणसे छूटनेका यत्न किया है, जबकि दूसरे तपस्वियोंने . सांसारिक इच्छाओंके वशीभूत होकर अग्निहोत्रादि कर्म करके संसार-परि
भ्रमणका ही यत्न किया है । दोनोंकी इन प्रवृत्तियोंमें कितना बड़ा अन्तर है !
त्वमुत्तम-ज्योतिरजः क्व निवृतः क ते परे बुद्धि-लवोद्धव-क्षताः । ततः स्वनिःश्रेयस-भावनापरै
बुध-प्रवेकैर्जिन ! शीतलेड्यसे ॥ ५ ॥ (५०)। 'हे शीतल जिन ! कहाँ तो आप उत्तमज्योति-परमातिशयको प्राप्त केवलज्ञानके धनी-, अजन्मा-पुनर्जन्मसे रहित-- और निवृत्त सांसारिक इच्छात्रोंसे रहित सुखीभूत ! और कहाँ वे दूसरे प्रसिद्ध अन्य देवता अथवा तपस्वी-जो लेशमात्र ज्ञानके मदसे नाशको प्राप्त हुए हैं-सांसारिक विषयोंमें अत्यासक्त होकर दुःखोंमें पड़े हैं और आत्म-. स्वरूपसे विमुख एवं पतित हुए हैं !! इसीलिये अपने कल्याणकी भावना तत्पर-उसे साधनेके लिए सम्यग्दर्शनादिकके अभ्यासमें पूर्ण । , सावधान-बुधश्रेष्ठों-गणधरादिक देवों के द्वारा आप पूजे जाते हैं।