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प्रस्तावना .
१६. शासन अथवा प्रवचन अनेकान्त और अहिंसाके आधार पर प्रतिष्ठित था और इसलिये यथार्थ वस्तुतत्त्वके अनुकूल और सबके लिये हितरूप होता था। उन उपदेशोस्ने विश्वमें तत्त्वज्ञानकी जो धारा प्रवाहित हुई है उसके ठीक सम्पर्क में आनेवाले असंख्य प्राणियोंके अज्ञान तथा पापमल धुल गए हैं और उनकी भूल-भ्रांतियां मिट कर तथा असत्यवत्तियां दूर हो कर उन्हें यथेष्ट सुख-शातिकी प्राप्ति हुई है। उन प्रवचनोंसे ही उसउस समय सत्तीर्थकी स्थापना हुई है और वे संसारसमुद्र अथवा दु:खसागरसे पार उतारनेके साधन बने हैं। उन्हींके कारण उनके उपदेष्टा तीर्थङ्कर कहलाते हैं और वे लोकमें सातिशय पूजाको प्राप्त हुए हैं तथा आज भी उन गुणज्ञों और अपना हित चाहनेवालोंके द्वारा पूजे जाते हैं जिन्हें उनका यथेष्ट परिचय प्राप्त है। अर्हद्विशेषण-पद
स्वामी समन्तभद्रने, अपने इस स्तोत्रमें. तीर्थङ्कर अर्हन्तोंके लिये जिन विशेषणपदोका प्रयोग किया है उनसे अहँत्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नय-विवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए उनका पाठ करने पर सहजमें ही अवगत हो जाता है। अतः यहां पर उन विशेषणपदोंका स्तवनक्रमसे एकत्र संग्रह किया जाता है। जिनपदोंका मूलप्रयोग सम्बोधन तथा द्वितीयादि विभक्तियों और बहुवचनादिके रूपमें हुआ है उन्हें अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे यहां प्रथमाके एक वचनमें ही रक्खा गया है, साथमें स्थान-सूचक्र पद्याङ्क भी ‘पद्य सम्बन्धी विशेषणोंके अन्तमें दे दिये गये हैं। और जो एक विशेषण अनेक स्तवनोंमें प्रयुक्त हुआ है उसे एक ही जगहप्रथम प्रयोगकै स्थानपर-ग्रहण किया गया है, अन्यत्र प्रयोगकी