Book Title: Swayambhu Stotram
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 194
________________ ܀܀܀܀܀ स्वयम्भू-स्तोत्र : ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ८५ काम-क्रोधादि दोषों को अपने पास फटकने नहीं देते और अपने ज्ञानादि-तेजसे जिन्होंने आसन - विभुओं को - लोकके प्रसिद्ध नायकोंकों— निस्तेज किया है वे - गणधर देवादि महात्मा - भी आपके इस शासन- माहात्म्य की स्तुति करते हैं ।' अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाऽविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादशे सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ॥ ३॥ ' हे मुनिनाथ ! 'स्यान' शब्द - पुरस्सर कथनको लिए हुए आपका जो स्याद्वाद है— अनेकान्तात्मक प्रवचन है-वह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट-प्रत्यक्ष — और इष्ट — श्रागमादिक - प्रमाणों के साथ उसका कोई विरोध नहीं है । दूसरा 'स्थान' शब्द - पूर्वक कथन से रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं है; क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनोंके विरोधको लिये हुए है - प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट अभिमतको भी बाधा पहुँचाता है और उसे किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता ।' त्वमसि सुरासुर - महितो ग्रन्थिकरुत्वाऽऽशय प्रणामाऽमहितः । लोक-त्रय-परमहितो Sनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धाम-हितः ॥ ४ ॥ ' ( हे वीर जिन ! ) आप सुरों तथा असुरोंसे पूजित हैं, किन्तु ग्रन्थिकसत्त्वोंके — मिथ्यात्वादि-परिग्रह से युक्त प्राणियोंके - ( भक्त ) हृदयसे प्राप्त होनेवाले प्रणामसे पूजित नहीं हैं—भले ही वे ऊपरी प्रणामादिसे पूजा करे, वास्तवमें तो सम्यग्दृष्टियोके ही आप पूजा-पात्र हैं । ( किसी किसीके द्वारा पूजित न होनेपर भी ) आप तीनों लोकके ܀܀܀܀܀܀܀܀܀

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