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समन्तभद्र - भारता
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लब्धात्मलक्ष्मीर जितोऽजितात्मा
जिन श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ||५|| (१०) 'जो ब्रह्मनिष्ठ थे - अनन्य श्रद्धा के साथ श्रात्मामें हिंमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा किये हुए थे, (इसीसे ) सम - मित्र शत्रु थे - मित्र और शत्रुमें कोई भेदभाव न करके उन्हें श्रात्मदृष्टिसे समान अवलोकन करते थे, आत्मीय कषाय-दोषोंको जिन्होंने सम्यग्ज्ञानाऽनुष्ठानरूप विद्याके द्वारा पूर्णतया नष्ट कर दिया था— श्रात्मापरसे उनके आधिपत्यको बिल्कुल हटा दिया था -: -, ( और इसीसे ) जो लब्धात्मलक्ष्मी हुए थेअनन्तज्ञानादि श्रात्मलक्ष्मीरूप जिनश्रीको जिन्होंने पूर्णतया स्वाधीन किया था - ; ( इस प्रकार के गुणोंसे विभूषित) वे जितात्मा - इन्द्रियोंके आधीन न होकर आत्मस्वरूप में स्थित - भगवान् अजित - जिन मेरे लिये जिन - श्रीका - शुद्धात्म लक्ष्मीकी प्राप्तिका - विधान करें । अर्थात् मैं, उनके आराधन-भजन- द्वारा उन्हींका आदर्श सामने रखकर, अपनी आत्माको कर्म-बन्धनसे छुड़ाता हुया पूर्णतया स्वाधीन करने में समर्थ होऊँ, और इस तरह जिन - श्रीको प्राप्त करनेमें वे मेरे सहायक बनें । '
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+ 'जिनः श्रियं' इति पाठान्तरम् ।