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स्वयम्भू-स्तोत्र
होता है उसी प्रकार हे महामुने ! आपके अशेष- माहात्म्यको जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोड़ासा प्रलाप आपके गुणोंके संस्पर्शरूप होने से कल्याणका ही हेतु है ।
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श्रीधर्म-जिन स्तवन
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धर्म-तीर्थमनघं प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । कर्म-कक्षमदहत्तपोऽग्निभिः
शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥ १ ॥
' ( हे धर्मजिन !) अनवद्य - धर्म तीर्थको -- सम्यग्दर्शनादिरूप धर्मतीर्थंको अथवा सम्यग्दर्शनाद्यात्मक-धर्म के प्रतिपादक आगम-तीर्थको - (लोक) प्रवर्तित करते हुए आप सत्पुरुषों द्वारा 'धर्म' इस सार्थक संज्ञाको लिये हुए माने गये हैं । आपने ( विविध ) तपरूप
नियोंसे कर्म-वनको जलाया है, ( फलतः ) शाश्वत - अविनश्वर"सुख प्राप्त किया है । ( ओर इसलिये ) आप शंकर हैं - कर्मवनको दहन कर अपनेको और धर्मतीर्थको प्रवर्तित कर सकल प्राणियोंको सुखके करनेवाले हैं।"
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५.१
देव-मानव - निकाय - सत्तमै रेजि परिवृतो वृतो बुधैः ।
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