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स्वयम्भूस्तोत्र स्वास्थ्यं यदात्यान्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्ति
रितीदमाख्यद्भगवान्सुपाश्वः ॥३१॥ और इसलिये इन्द्रिय विषयोंको भोगनेके लिये उनसे तृप्ति . प्राप्त करने के लिये-जो भी पुरुषार्थ किया जाता है वह इस
ग्रन्थके कर्मयोगका विषय नहीं है। उक्त वाक्यमें ही इन भोगोंको उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धिके कारण बतलाया है, जिससे शारीरिक तथा मानसिक तापकी शान्ति होने नहीं पाती। अन्यत्र भी ग्रन्थमें इन्हें तृष्णाकी अभिवृद्धि एवं दुःखसंतापके कारण बतलाया है तथा यह भी बतलाया है कि इन विषयोंमें आसक्ति होनेसे मनुष्योंकी सुखपूर्वक स्थिति नहीं बनती
और न देह अथवा देही (आत्मा) का कोई उपकार ही बनता है (१३, १८, २०, ३१, ८२)। मनुष्य प्रायः विषय सुखकी तृष्णाके वश हुए दिनभर श्रमसे पीड़ित रहते हैं और रातको सो जाते हैं-उन्हें आत्महितकी कोई सुधि ही नहीं रहती (४८)। उनका मन विषय-सुखकी अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूर्छितजैसा हो जाता है (४७)। इस तरह इन्द्रिय-विषयको हेय बतलाकर उनमें आसक्तिका निषेध किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उस कर्मयोगके विषय ही नहीं जिसका चरम लक्ष्य है आत्माका । पूर्णतः विकास:। . . . . .
पूर्णतः आत्मविकासके अभिव्यञ्जक 'जो नाम ऊपर दिये हैं . उनमें मुक्ति और मोक्ष में दो नाम अधिक लोकप्रसिद्ध हैं और दोनों बन्धनसे छूटनेके एक ही आशयको लिये हुए हैं। मुक्ति