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समन्तभद्र-भारती
ही अपरिमित विशेपों (धर्मों) का कथन किया है, जिनमें से एक. एक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये रहता है, और सप्त! भंगके नियमको अपना विषय किये रहता है-कोई भी विशेष अथवा | में धर्म सर्वथा एक दूसरेकी अपेक्षासे रहित कभी नहीं होता और न सप्तभंग* के नियमसे बहिर्भूत ही होता है !'
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्राऽऽरम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राऽऽश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परम-करुणो ग्रन्थमुभयं
भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषोपधि-रतः॥४॥
'प्राणियोंकी अहिंसा जगत में परमब्रह्म-अत्युच्चकोटिकी अात्म* चर्या-जानी गई है और वह अहिंसा उस आश्रमविधिमें नहीं ! बनती जिसआश्रमविधिमें अणमात्र-थोड़ा सा-भी आरम्भ.
होता है । अतः उस अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धिके लिये परम! करुणाभावसे सम्पन्न आपने ही बाह्याभ्यन्तररूपसे उभय-प्रकारके -
परिग्रहको छोड़ा है-बाह्यमें वस्त्रालंकारादिक उपधियोंका और अन्त
रंगमें रागादिक भावोंका त्याग किया है- और फलतः परमब्रह्मकी | सिद्धिको प्राप्त किया है। किन्तु जो विकृतवेष और उपधिमें रत |
हैं-यथाजालिङ्गके विरोधी जटा-मुकट-धारण तथा भस्मोद्धूलनादि! रूप वेष और वस्त्र, आभूषण, अक्षमाला तथा मृगचर्मादिरूप उपधियोंमें में आसक्त हैं—उन्होंने उस बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है। और इस लिए ऐसांसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती हैं।'
वपुषा-वेष-व्यवधि-रहितं शान्त-करणं - ‘यतस्ते संचष्टे स्मर-शर-विषाऽऽतङ्क-विजयम् ।