________________
स्वयम्भू-स्तोत्र
.
त्वमार्य ! नक्तं-दिवमप्रमत्तवा
नजागरेवाऽऽत्म-विशुद्ध-वत्मनि ॥३॥ ____अपने जीनेकी तथा काम-सुखकी तृष्णाके वशीभूत हुए
लौकिक जन दिनमें श्रमसे पीडित रहते हैं-सेवा-कृष्यादिजन्य ... क्लेश-खेदसे अभिभूत बने रहते हैं और रातमें सो जाते हैं अपने । अात्माके उद्धारकी और उनका प्रायः कोई लक्ष्य ही नहीं होता । परन्तु हे आर्य-शीतल-जिन ! आप रात-दिन प्रमादरहित हुए आत्माकी !
विशुद्धिके मार्गमें जागते ही रहे हैं-श्रात्मा जिससे विशुद्ध होता हैहै मोहादि कर्मोंसे रहित हुअा स्वरूपमें स्थित एवं पूर्ण विकसित होता है| उस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गके अनुष्ठानमें सदा सावधान
अपत्य-वित्तोत्तर-लोक-तृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्पुनर्जन्म-जरा-जिहासया
त्रयी प्रवृत्ति समधीरवारुणत् ॥४॥ 'कितने ही तपस्वीजन संतान, धन तथा उत्तरलोक (परलोक | या उत्कृष्ट लोक) की तृष्णाके वशीभूत हुए-पुत्रादिकी प्राप्तिके लिए,
धनकी प्राप्ति के लिए अथवा स्वर्गादिकी प्राप्ति के लिये-(अग्निहोत्रादिक ! यज्ञ-) कर्म करते हैं; ( परन्तु हे शीतल-जिन ! ) आप समभावी हैं• सन्तान, धन तथा उत्तरलोकी तृष्णासे रहित हैं-आपने पुनर्जन्म,
और जराको दूर करने की इच्छासे मन-वचन-काय तीनोंकी | प्रवृत्तिका रोका है-तीनाकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हटाकर उन्हें स्वात्मा- ।