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स्वयम्भू-स्तोत्र :
सर्वथा - नियम- त्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तान के न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ||१७||
सर्वथारूपसे - सत् ही है, असत् ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है इत्यादि रूपसे - प्रतिपादनके नियमका त्यागी, और यथादृष्टको -. जिस प्रकार सत्-असत् श्रादि रूपसे वस्तु प्रमाण - प्रतिपन्न है उसको --- अपेक्षा रखनेवाला जो 'स्यात्' शब्द है वह आपके अनेकान्तवादी जिनदेवके-न्यायमें है, ( त्वन्मत- बाह्य ) दूसरोंके - एकान्तवा - दियोंके -न्यायमें नहीं है, जो कि अपने वैरी आप हैं ।'
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अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः । अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ १८ ॥
' आपके मत में अनेकान्त भी - सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी— प्रमाण और नयसाधनों (दृष्टियों ) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप -- कथञ्चित् अनेकान्त और कथञ्चित् एकान्तस्वरूप -- है । प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है ( 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः ' इस वाक्य के आशयानुसार ) और विवक्षित नयकी अपेक्षा अनेकान्तमें एकान्तरूप - प्रतिनियतधर्मरूप - सिद्ध होता है ( 'विकादेशः नयाधीनः ' इस वाक्य के श्राशयानुसार ) ।'
* एकान्तवादी परके वैरी होनेके साथ साथ अपने वैरी व्याप कैसे हैं, इस बातको सविशेपरूपसे जाननेके लिये 'समन्तभद्र - विचार -माला' का प्रथम लेख 'स्व-पर-वैरी कौन ?' देखना चाहिये, जो कि 'अनेकान्त' के
चतुर्थ वर्ष की प्रथम किरण ( नववर्षात ) में प्रकाशित हुआ है ।
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