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स्वयम्भूस्तोत्र ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि संसारी जीवोंका हित इसीमें है कि वे अपनी विभाव-परिणति को छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात् सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करें। इसके लिये आत्म-गुणोंका परिचय चाहए गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये और विकास-मार्गको दृढ श्रद्धा चाहिये । बिना अनुसगके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अननुरागी अथवा अभक्त-हृदय गुण-ग्रहणका पात्र ही नहीं, विना परिचयके अनुराग बढ़ाया नहीं जा सकता और बिना विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणों के विकासकी और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इस लिये अपना हित एवं विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषों अथवा सिद्धात्माओंकी शरणमें जाना चाहिये-उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना चाहिए और उन्हें अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नकशे कदमपर-पदचिन्होंपर-चलना चाहिये अथवा उनकी शिक्षाओंपर अमल करना चाहिये, जिनमें आत्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अथवा पूर्णरूपसे विकास हुआ हो; यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है । वास्तवमें ऐसे महान् आत्माओंके विकसित आत्मस्वरूपका भजन और कीर्तन ही हम संसारी "जीवोंके लिए अपने प्रात्माका अनुभवन
और मनन है; हम 'सोऽह' की भावना-द्वारा उसे अपने जीवनमें उतार सकते हैं और उन्हींके-अथवा परमात्मस्वरूपके-आदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने आत्मीय गुणोंका विकास सिद्ध करके तद्रप हो सकते हैं। इस सब अनुष्ठानमें उन सिद्धात्माओंकी कुछ भी गरज नहीं होती और न इसपर उनको कोई प्रसन्नता ही निर्भर है-यह सब साधना अपने ही उत्थानके लिए की जाती है। इसीसे सिद्धि (स्वात्मोपलब्धि) के साधनोंमें भक्ति-योग' को