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स्वयम्भू-स्तोत्र
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उनका आत्मविकास करनेके लिये - उसी तरह भासमान हुए हैं जिस तरह कि पद्मबन्धु-सूर्य पद्मकारोंका — कमलसमूहों का विकास करता हुआ सुशोभित होता है ।"
भार पद्मच सरस्वतीं च
भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समग्र - शोभां सर्वज्ञ - लक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ||२|| 'आपने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मीकी प्राप्तिके पूर्व - श्रर्हन्त-अवस्था से पहले - लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको धारण किया है-उस समय गृहस्थावस्थामें आप यथेच्छ धन-सम्पत्तिके स्वामी थे, आपके यहाँ लक्ष्मीके अटूट भण्डार भरे थे, साथ ही अवधि ज्ञानादि-लक्ष्मीसे भी विभूषित और सरस्वती आपके कण्ठमें स्थित थी। बादको विमुक्त होनेपर -- जीवन्मुक्त (अर्हन्त) अवस्थाको प्राप्त करनेपर -- आपने उस पूर्ण शोभावाली सरस्वतीको - दिव्य वाणीको— ही धारण किया है जो सर्वज्ञलक्ष्मी से प्रदीप्त थी- - उस समय आपके पास दिव्यवाणीरूप सरस्वतीकी ही प्रधानता थी, जिसके द्वारा जगतके जीवोंकों उनके कल्याणका मार्ग सुझाया गया है।'
शरीर-रश्मि- प्रसरः प्रभोस्ते
बालार्क - रश्मिच्छविराऽऽलिलेप । नरामissकीर्ण-सभां प्रभा वा शैलस्य' पद्माभमणेः स्वसानुम् ||३||
*'लक्ष्मीं ज्वलितां' इति पाठान्तरम् । + 'प्रभावच्छैलस्य' इति पाठान्तराम् ।