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स्वयम्भूस्तोत्र (वास्तव में ) विधि और निषेध दोनों कथञ्चित् इष्ट हैं। विवक्षासे उनमें मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है (२५)। इस तत्त्वज्ञानकी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है।
(६) जो केवलज्ञानादि लक्ष्मीसे आलिंगित चारुमूर्ति होता है वही भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्यका काम देता है (२६)। ___ (७) आत्यन्तिक स्वास्थ्य-विभावपरिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि-स्वरूपमें अविनश्वरी स्थिति-ही जीवात्माओंका स्वार्थ है-क्षणभंगुर भोग स्वार्थ न होकर अस्वार्थ है। इन्द्रियविषय-सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगांक्षाकी-वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखकी-शान्ति नहीं होने पाती (३१)। जीवके द्वारा धारण किया हुआ शरीर अजंगम, जंगम-नेय-यन्त्र, बीभत्सु, पूति, क्षयि और तापक है और इसलिये इसमें अनुराग व्यर्थ है, यह हितकी बात है (३२)। हेतुद्वयसे आविष्कृत-कार्य-लिङ्गा भवितव्यता अलंध्यशक्ति है, इस भवितव्यताकी अपेक्षा न रखनेवाला अहंकारसे पीड़ित हुआ संसारी प्राणी ( यंत्र-मंत्र-तंत्रादि) अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी सुखादिक कार्योंको वस्तुतः सम्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता (३३)। यह संसारी प्राणी मृत्युसे डरता है परन्तु (अलंध्यशक्ति-भवितव्यता-वश) उस मृत्युसे छुटकारा नहीं; नित्य ही कल्याण चाहता है परन्तु (भावीकी उसी अलंध्यशक्ति वश) उसका लाभ नहीं होता, फिर भी यह मूढ प्राणी भय तथा इच्छाके वशीभूत हुआ स्वयं ही वृथा तप्तायमान होता है अथवा भवितव्यता-निरपेक्ष प्राणी वृथा ही भय और इच्छाके वश हुआ दुःख उठाता है (३४)।