________________
समन्तभद्र-भारती
। 'हे प्रभो ! प्रातःकालीन सूर्य-किरणोंकी छविके समान-रक्तवर्ण । , ग्राभाको लिये हुए-आपके शरीरकी किरणों के प्रसार ( फैलाव ) ने है मनुष्यों तथा देवताओं से भरी हुई समवसरण-सभाको इस तरह है
आलिप्त ( व्याप्त ) किया है जिस तरह कि पद्माभमणि-पर्वतकी 2. प्रभा अपने पार्श्वभागको आलिप्त करती है।'
नभस्तलें पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राऽम्बुज-गर्भचारैः। पादाऽम्बुजैः पातित-मार-दर्पो
भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ?॥४॥ (हे पद्मप्रभ जिन ! ) आपने कामदेवके दर्प ( मद ) को चूर र चूर किया है और सहस्रदल-कमलोंके मध्यभागपर चलनेवाले । ! अपने चरण-कमलोंके द्वारा नभस्थलको पल्लवोंसे व्याप्त-जैसा * करते हुए, प्रजाकी विभूतिके लिये-उसमें हेयोपादेयके विवेकको : जागृत करनेके लिये--भूतलपर विहार किया है ।'
गुणाम्बुधेर्विग्रुषमप्यजस्य नाऽऽखंडलः स्तोतुमलं तवर्षः । प्रागेव मादृकिमुताऽतिभक्ति
माँ बालमालापयतीदमित्थम् ॥५॥ (३०) 'हे ऋषिवर! आप अज हैं-पुनर्जन्मसे रहित हैं--, आपके + मुद्रित प्रतियोंमें जो 'बिजहर्ष' पाठ है वह अशुद्ध है और लेखकोंकी । _ 'थ' को 'घ' पढ़ लेने जैसी भूलका परिणाम जान पड़ता है। . *'अजस्रं' इति पाठान्तरम् ।