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• समन्तभद्र-भारती
! पूर्वक रसायन-सेवनकी तरह आपका अाराधन करके संसार-रोग मिटाते । 2. हुए अपना पूर्ण स्वास्थ्य (मोक्ष) सिद्ध करनेमें समर्थ होवें।
भावार्थ-'श्रेयसे प्रसीद नः-याप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, यह अलंकृत भापामें भक्तकी प्रार्थना है, जिसका शब्दाशय यद्यपि * इतना ही है कि आप हमपर प्रसन्न होवें और उस प्रसन्नताका फल हमें कल्या
के रूपमें प्राप्त होवे; परन्तु वीतराग जिनेन्द्रदेव किसीपर प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं हुअा करते-वे तो सदा ही अात्मस्वरूपमें मग्न और प्रसन्न रहते हैं, फिर उनसे ऐसी प्रार्थनाका कोई प्रयोजन नहीं । वास्तवमें यह अलंकृतभाषामय प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है और इसका फलितार्थ यह है । कि हम वीतरागदेव श्रीधर्मजिनका प्रसन्न-हृदयसे अाराधन करके उनके
साथ तन्मयता प्राप्त करें और उस तन्मयताके फलस्वरूप अपना आत्म- ! * कल्याण सिद्ध करनेमें उसी प्रकारसे समर्थ होव जिस प्रकार कि रसायनके ! प्रसादसे-प्रसन्नतापूर्वक रसायनका सेवन करनेसे-रोगीजन आरोग्य-लाभ
करनेमें समर्थ होते हैं।
श्रीशान्ति-जिन-स्तवन
विधाय रक्षां परतः प्रजानां
राजा चिरं योऽप्रतिम-प्रतापः। . व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्ति
मुनिया-मूर्तिरिवाऽघशान्तिम् ॥१॥