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। समन्तभद्र-भारती
और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हुए ।
आपका रूप ही इस बातको बतलाता है कि आपने दोषोंका पूर्ण! तया निग्रह ( विजय ) किया है क्योंकि राग तथा अहंकारका निग्रह में किये विना कटक-केयूरादि ग्राभूषणों तथा जटा-मुकुट-रक्ताम्बरादिरूप, . वेषोंके त्यागनेमें प्रवृत्ति नहीं होती, द्वेष तथा भयका निग्रह किये विना
शस्त्रास्त्रोंका त्याग नहीं बनता, अज्ञानका नाश किये विना ज्ञानमें उत्कृष्टता | * नहीं पाती, मोहका क्षय किये विना कषायों और इन्द्रियोंका पूरा दमन नहीं । ! बन आता और हिंसावृत्ति, द्वेष तथा लौकिक स्वार्थको छोड़े विना दयामें तत्परता नहीं पाती।'
समन्ततोऽङ्गभासां ते परिवेषेण भूयसा। ___ तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यान-तेजसा ॥१०॥
'सब ओरसे निकलनेवाल आपके शरीर-तेजोंके बृहत परि-। मंडलसे-विशाल प्रभामंडलसे-आपका बाह्य अन्धकार दूर हुआ
और ध्यान-तेजसे आध्यात्मिक-ज्ञानावरणादिरूप भीतरी-अन्ध- । कार नाशको प्राप्त हुआ है।' सर्वज्ञ-ज्योतिषोभ तस्तावको महिमोदयः ।
न कुर्यात्प्रणनं ते सत्त्वं नाथ ! सचेतनम् ॥११॥
'हे नाथ अरजिन ! सर्वज्ञकी ज्योतिसे—ज्ञानोत्कपेसे-उत्पन्न हुआ आपके माहात्म्यका उदय किस सचेतन प्राणीको-गुण-दोषके विवेकमें चतुर जीवात्माको-प्रणम्रशील नहीं बनाता ? सभीको अापके आगे नत-मस्तक करता है।' तव वागमृतं श्रीमत्सर्व-भाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ॥१२॥