________________
स्वयम्भू-स्तोत्र
'३७
-श्रीश्रेयो-जिन-स्तवन
श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः श्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भवांश्चकाशे भुवनत्रयेऽस्मि
न्नेको यथा वीत-घनो विवस्वान् ॥१॥ 'हे अजेयवाक्य-अबाधित वचन-श्रेयो जिन ! -सम्पूर्ण कषायों, इन्द्रियों अथवा कर्म शत्रुओंको जीतनेवाले श्रीश्रेयांस तीर्थंकर ! आप इन श्रेयप्रजाजनोंको-भव्यजीवोंको-श्रेयोमार्गमें अनुशासित करते हुए-मोक्षमार्गपर लगाते हुए विगत-घन-सूर्यके समान अकेले ही इस त्रिभुवनमें प्रकाशमान हुए हैं। अर्थात् जिस प्रकार मेघके पटलोंसे रहित सूर्य अपनी अप्रतिहत किरणों द्वारा अकेला ही में
अन्धकारसमूहका विघातक बनकर, दृष्टि-शक्तिसे सम्पन्न नेत्रोंवाली प्रजाको | इष्ट स्थानकी प्राप्तिका निमित्तभूत सन्मार्ग दिखलाता हुआ, जगत्में शोभा* को प्राप्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि घातिकर्म-चतुष्टयसे रहित है. आप अकेले ही, अज्ञानान्धकारके प्रसारको विनष्ट करनेमें समर्थ बनकर
अपने अबाधित वचनों द्वारा भव्य-जनोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए, इस त्रिलोकीमें शोभाको प्राप्त हुए हैं।'
विधिर्विषक्त-प्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्राऽन्यतरत्प्रधानम्।