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समन्तभद्र-भारती
1. श्रीके पात्र नहीं हैं-सर्वथा एकान्तपक्षको अपनानेसे वे उसके योग्य ही । नहीं रहे। ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः।।
त्वद्विषः स्वहनो बालास्तत्त्वाऽवक्तव्यतां श्रिताः ॥१॥ -- . 'वे एकान्तवादी जन, जो उस (पूर्वोक्त ) स्वघाति-दोषको दूर ।
करनेके लिये असमर्थ हैं, आपसे-अापके अनेकान्तवादसे-द्वेष रखते हैं, आत्मघाती हैं-अपने सिद्धान्तका घात स्वयं अपने हाथों करते हैं-और यथावद्वस्तुस्वरूपसे अनभिज्ञ-बालक हैं,(इसीसे)उन्होंने तत्त्व की अवक्तव्यताको आश्रित किया है-वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन किया है।' सदेक-नित्य-वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः ।
सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ॥१६॥ ___ सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपक्षरूप असत. अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नय-पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथा-रूपमें तो अति दूपित हैं और स्यात्-रूपमें पुष्टिको प्राप्त होते हैं।अर्थात् सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा एक (अद्वैत ), सर्वथा अनेक सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वक्तव्य और सर्वथा अवक्तव्य ! रूपमें जो मत-पन हैं, वे सब दूषित (मिथ्या ) नव हैं-स्वेष्टमें बाधक हैं। और स्यात् सत्, स्यात असत, स्यात् एक, स्यात् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्यरूपमें जो । नय-पक्ष हैं, वे सन्त्र पुष्ट ( सम्यक् ) नय हैं—स्वकीय अर्थका निर्बाधरूपसे प्रतिपादन करनेमें समर्थ हैं।'
'प्रदुष्यन्ते पुष्यन्ते' इति पाठान्तरम् ।